- डॉ. राकेश द्विवेदी
- उरई
जिले की राजनीति के ‘मोगेम्बो’ ( प्रभावशाली या ताकतवर) कहे जाने वाले काँग्रेस के पूर्व विधायक विनोद चतुर्वेदी अब वेद व्यास की भूमि ( कालपी विधान सभा) में उतरने की दबे पाँव तैयारी कर रहे हैं। उरई के बाद वह माधौगढ़ गए जरूर थे पर वहाँ उनका कोई दाँव नहीं चल पाया। पिछले चुनाव में मूलचंद निरंजन को उतारकर मित्रता भले निभाने की कोशिश की गई लेकिन मोदी लोकप्रियता में यह तीर भी निशाने से भटक गया।
पिछले कुछ समय से प्रदेश में उभरे नए राजनीतिक समीकरणों को भाँपते हुए वह यहाँ के समीकरणों को खुद की संभावनाओं के अनुकूल मान रहे हैं। इसीलिए चुनाव लड़ना लगभग तय हो चुका है। इरादा तो काँग्रेस से ही लड़ने का है पर अन्य किसी विकल्प से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। इंतजार तो साइकिल भी कर रही है ! हालांकि श्री चतुर्वेदी ने इससे इन्कार किया। बोले- काँग्रेस से मेरा घर है , इसे नहीं छोड़ सकता।
राजनीति सच बोलने का गुण नहीं सिखाती। सच बोलने का अभिनय होता है पर असल में वह होता नहीं। चेहरा कोई हो पर राजनीति की जमात अब लगभग एक जैसी ! याद होगा – करीब ढाई वर्ष पहले एक इंटरव्यू में विनोद चतुर्वेदी ने कहा था कि “अब वह विधान सभा का कोई चुनाव कभी नहीं लड़ेंगे। यदि अवसर मिला तो लोकसभा का ही चुनाव लड़ूँगा। अन्यथा संगठन की राजनीति करूँगा ” खैर, यही तो राजनीति है ! अतीत की बातों का इस विधा में कोई मतलब नहीं! माधौगढ़ में मिली लगातार पराजयों से वह चुनावी राजनीति को लेकर काफी हताश हो चुके थे। तब की घोषणा उस हताशा का कारक भी हो सकती है। उनके चहेतों ने माधौगढ़ में उरई जैसी सफलता के सब्जबाग तो खूब दिखाये पर वहाँ के परिणाम चतुर्वेदी की लोकप्रियता को चोट पहुँचाते वाले साबित हए। वैसे माधौगढ़ क्षेत्र को सब्जबाग दिखाने में पारंगत माना जाता है।
उधर काँग्रेस में पूर्व सांसद बृजलाल खाबरी के आ जाने से भी उन्हें अस्तित्व संभाल कर रखने का संघर्ष करना पड़ा। हाल ही में पंचायती राज चुनाव कमेटी में पार्टी द्वारा मिली जिम्मेदारी से जरूर उन्हें सुकून मिला है। कहा जाता है कि राजनीति में जीवित रहने के लिए दिखना बहुत आवश्यक होता है। जिसकी चर्चा होना बंद हो जाये , वह समझो खत्म! यही वजह है कि उरई से 2007 में विधायक बने विनोद चतुर्वेदी अपने चुनावी निर्णय को बदलने पर मजबूर हुए। इसके साथ कुछ कारण भी हैं। यह सर्व विदित है कि उनको जिले में ब्राह्मणों का सबसे सशक्त चेहरा अभी भी माना जाता है। जिले में उनको ‘राजनीति का मोगेम्बो’ तक का अलंकरण मिला हुआ है। फिर वह तो कांट- छांट में भी माहिर माने जाते हैं। विपक्ष के तमाम नेताओं से उनके भरपूर सम्बन्ध हैं।
काँग्रेस के मोहजाल में वह फँसे अवश्य रहे पर एक- एक बार उनको सपा और बसपा से चुनाव लड़ने का ऑफर पहले भी मिल चुका था।
इन दिनों प्रदेश में कुछ ऐसे समीकरण उभरे हैं ,जिनको अपने पक्ष में करने को सपा और काँग्रेस दोनों प्रयासरत हैं। कालपी में ब्राह्मणों सहित कार्यनीति को लेकर उपजा असंतोष चतुर्वेदी को इस ओर आकर्षित कर रहा है। सूत्रों के अनुसार चतुर्वेदी ने यहाँ से लड़ने का अब पूरे तौर पर मन बना लिया है। कुछ समय से खास लोगों के माध्यम से उनकी तैयारी भी शुरू की जा चुकी हैं। सूत्रों के अनुसार फिलहाल वह अपना पुराना घर छोड़ने को तैयार नहीं दिखते पर इस बार संभावनाओं के खातिर सामने आए किसी विकल्प को भी लपका जा सकता है। बताया जाता है कि पंचायती राज चुनाव में मिली भूमिका के सहारे ही कालपी के पत्रकारों से गुरुवार को बात करके किसी नए संकेत की ओर भी कोई इशारा कर सकते हैं।
विनोद चतुर्वेदी यदि कालपी से 2022 का चुनाव लड़ते हैं तो कई लोगों के समीकरणों और उनके इरादों पर फर्क पड़ सकता है।